Tuesday, December 20, 2011


दिल आखिर तू क्यूँ रोता है
जब -जब दर्द का बादल छाया
जब गम का साया लहराया
जब आंसू पलकों तक आया
जब यह तनहा दिल घबराया
हमने दिल तो यह समझाया
दिल आखिर तू क्यों रोता है
दुनिया में यूँही होता है
ये तो गहरे सन्नाटे हैं
वक्त ने सबको ही बांटे हैं
थोडा गम है सबका किस्सा
थोड़ी धुप है सबका हिस्सा
आखें तेरी बेकार ही नम है
हर पल एक नया मौसम है
क्यूँ तू ऐसे पल खोता है
दिल आखिर तू क्यूँ रोता है

बिन वीआईपी स्टेटस सब सून


अभी पिछले ही दिनों रेलवे ने प्रथम श्रेणी का कोच फ़ुल हो जाने पर कुछ माननीयों को राजधानी एक्सप्रेस के द्वितीय श्रेणी में बर्थ दे दिया। । इस पर मननीयों ने रेलवे से शिकायत की कि उन्हें प्रथम श्रेणी की बजाय द्वितीय श्रेणी मे बर्थ क्यों दिया गया । इस मुद्दे पर उन्होने रेल मंत्री तक से  शिकायत कर दी । ईलैक्ट्रोनिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक हाहाकार मचा दिया । इस प्रकार तीन महीना पहले से आरक्षित टिकट लेकर अपनी यात्रा का प्लान बनाये हुये यात्रियों की ट्रेनों को अचानक कैंसल कर देने वाली रेल प्रतिदिन हजारों लाखों यात्रियों को एक अदद सीट तक मुहैया न करा पाने वाली रेलबोगी के साथ साथ टायलेट तक में भेंड़बकरियों की तरह ठुंस ठुंस कर अपने गंतव्य तक जाने के लिये मजबूर लोगों के लिये कुछ न कर पाने वाली रेलट्रेनों तथा प्लेटफ़ार्मों पर टीटीई,टीसी,आरपी एफ़जीआरपी के हाथों रोज लुटने पीटने वाले यात्रियों की दशाओं पर संवेदनहीन रेल ने इन माननीयों के वईआईपी दर्जा कम कर दिये जाने से स्वंय आहत एव द्रवित हो कर तत्काल कार्यवायी की ।और वे वीआईअपी माननीय अंततकुछ लोगों की बलि लेकर ही शांत हुये।
बिहार की सरकार ने पिछ्ले दिनों एक विधायक की हत्या से द्र्वित होकर तत्काल विधायकों के व्यक्तिगत बाडीगार्ड की संख्या एक से बढाकर दो कर दी तथा उनके घर पर सुरक्षाकर्मी की संख्या को कर दिया। अब देखिये सरकार को आम जन की सुरक्षा की परवाह नही है । इस राज्य में जहां प्रति एक लाख व्यक्ति पर मात्र 80 पुलिस कर्मी हैं । जहां राज्य सरकार समाज में बढते अपराध के कारणों मे पुलिस बल की कमी को सबसे प्रमुख कारण बताती है जहां आम जन के लिये पुलिस बल नही है वहां वीआईपी के लिये बल की कमी नही है।

लोकसभाजहां देश के चुने हुए 'आदरणीयसांसद बैठते हैंकी विशेषाधिकार समिति ने कहा है कि सांसदों को अपनी गाड़ी पर लाल बत्ती लगाने का हक मिलना चाहिए। समिति ने इसके लिए सेंट्रल मोटर वीकल्स ऐक्ट के तहत हाईवे मिनिस्ट्री से नॉटिफिकेशन जारी करने की सिफारिश की है। वर्तमान संसद सत्र और पिछले कई सत्रों में इन सांसदों का व्यवहार हास्यास्पद रहा है। इसके बावजूद वे चाहते हैं कि उनके 'सम्मान का दर्जा'बढ़ा दिया जाए। यानी वे चाहते हैं कि वे वीआईपी की लिस्ट में कुछ पायदान ऊपर चढ़ जाएं।
उनकी मांग जायज है या नाजायजइस मुद्दे पर आप बहस-मुबाहिसा शुरू करने से पहले जरा सोचिए। वास्तव में इस देश में वीआईपी का दर्जा आम आदमी को मिलना चाहिए। औरऐसा कोई विशेषाधिकार वास्तव में दिया जाना है तो खुद आम आदमी द्वारा चुने गए सांसदों से बेहतर उम्मीदवार कौन हो सकता हैअगर बाबू और दूसरे लोगों को यह विशेषाधिकार मिल सकता हैतो सांसद में हमारा प्रतिनिधित्व करने वाले सांसदों को क्यों नहींसुनने में तो तर्क दमदार लगता है!
मुझे नहीं पता वीआईपी की यह 'पूजाकहां से शुरू हुईलेकिन इतना तो तय है कि इसने सबको दुख पहुंचाया है। जिन्होंने इसे पा लिया हैजो इसे पाना चाहते हैं और या फिर जो उधार की महिमा में जीना चाहते हैंवीआईपी बनने की हसरत हर किसी में है। यह मान लिया जाता है कि अगर आपको लाइन लगकर अपना काम कराना पड़े तो आप महत्वपूर्ण नहीं है। या तो आप खुद सक्षम हों या किसी ऐसे दूसरे सक्षम व्यक्ति को जानते हों जो बिना लाइन के आपका काम करा दे। इसे अगर और खुलेआम कर सकें तो फिर क्या कहना। यानी लाइन में लगी 'दुर्भाग्यशाली गरीब आत्माओंको पता चलना चाहिए कि आपको लाइन में लगने से छूट दी गई है। इसके लिए वीआईपी बनने की चाहत रखने वाली मानसिकता के लोगों को ही कोसना गलत होगा। आम आदमी भी इसी तरह की मध्यकालीन मानसिकता से पीड़ित हैजिसके मुताबिक बड़े आदमी की पहचान यही है कि कानून तोड़ने के बाद भी कोई उसका कुछ न बिगाड़ सके।
दूसरी बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने बी.सीखंडूरी पहली बार अपने विधायकों और मंत्रियों की शिकायत पर हटाए गए थे। उनके विधायकों (जो कि मंत्री भी नहीं थे)की एक मुख्य शिकायत यह भी थी कि मुख्यमंत्री उन्हें गाड़ियों पर लाल बत्ती लगाने की अनुमति नहीं देते हैं। सीएम ने उन्हें आदेश दिया था कि वे आम आदमी की तरह बर्ताव करें और आम आदमी को यह अहसास करवाएं कि वे (विधायक और मंत्रीउन्हीं में से एक हैं। खंडूरी की मंशा कितनी भी अच्छी क्यों न होंवह भूल गए कि जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि खुद को 'वीआईपी'के तौर पर देखना चाहता है। उस दौरान उनमें से कुछ के साथ पत्रकारों से बातचीत भी हुई और वे बार-बार यही कह रहे थे कि वोटर भी बिना लाल बत्ती वाली गाड़ी के हमें भाव ही नहीं देते। बात में दम तो है!
अब सचाई यह है कि हमें यह पसंद आए या नहींएक आम मानसिकता के तहत सारा माजरा शासक और प्रजा का है। हम सांसद और विधायक चुनते हैं ताकि वे हम पर शासन कर सकेंन कि सरकार चलाएं। हम उन्हें चुनकर ऐसी जगह पहुंचा देते हैंजो आम आदमी की पहुंच से बाहर है। हम उन्हें किन्हीं राजाओं और रानियों की तरह शासन करता देखना चाहते हैं या फिर कम से कम ऐसे महत्वपूर्ण दरबारी (सत्ता के हिस्सेके तौर पर देखना चाहते हैं जो थोड़ा कम 'दुष्ट'हों। हालांकिहों वे वीआईपी ही।
यह हमारी मानसिकता है कि हम पॉलिटिकल पावर को महत्व और इज्जत के साथ जोड़कर देखते हैं। अगर आप कानून को तोड़ने में सक्षम नहीं हैंअगर आपके गिरेबान तक कानून का हाथ पहुंच जाएतो आप कुछ भी नहीं हैं। बेचारे सांसदों को गाड़ियों पर लाल बत्ती की मांग के लिए कोसना भी हमारी मानसिकता का पुरस्कार है।
हालांकिहम अपनी इस मानसिकता में धीमी गति से ही सहीलेकिन एक बदलाव देख सकते हैं। कुछ वीआईपीज़ इस बदलाव को स्वीकार कर रहे हैं (जैसे कि खंडूरी)लेकिन लगता है कि हमारे सांसदों ने बदलती हवा का रुख अभी भांपा नहीं है। आशा है कि उन्हें भी जल्द ही एहसास होगा। मुझे खुशी होगी अगर वे इसे मुश्किलों के बाद सीखें।